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“बजट हज़म, विकास ग़ायब: उत्तराखंड के अफसरों की गोलमाल गाथा” पढ़िए इस खास रिपोर्ट में?

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देहरादून

उत्तराखंड सरकार के विभागीय दफ्तरों में हर साल योजनाओं की झड़ी लगती है। अफसर बैठकें करते हैं, प्रेजेंटेशन बनते हैं, रिपोर्टें तैयार होती हैं – मानो विकास की गंगा बहने वाली हो। लेकिन हकीकत ये है कि ये योजनाएं कागज़ों में शुरू होकर वहीं दम तोड़ देती हैं।

राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों के नाम पर हर साल करोड़ों रुपये का बजट जारी होता है, लेकिन सवाल ये है कि इन पैसों से कितना “काम” होता है? स्थानीय लोग बताते हैं कि अक्सर तो कोई काम नज़र ही नहीं आता, और अगर होता भी है तो केवल लीपापोती—जैसे सड़क पर थोड़ी बजरी बिछा दी, बोर्ड लगा दिए और फोटो खिंचवा ली।

दूसरी तरफ, मैदानी क्षेत्रों की स्थिति और भी खराब है। हरिद्वार, उधमसिंहनगर जैसे जिलों में तो विकास मानो नाम मात्र का हो गया है। शहरों में टूटी सड़कें, अधूरी ड्रेनेज व्यवस्था, जलजमाव और खराब स्वास्थ्य सेवाएं सरकार की प्राथमिकता पर ही सवाल खड़े कर रही हैं।

बजट बढ़ता गया, पर विकास…?

RTI से मिली जानकारी के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में पहाड़ी जिलों में लगभग 10,000 करोड़ रुपये से अधिक का बजट जारी किया गया। लेकिन ज़मीन पर इसका असर दिखाई नहीं देता। वहीं मैदानी इलाकों के लिए बजट अपेक्षाकृत कम और निष्पादन उससे भी कम रहा।

नेताओं-अधिकारियों की मिलीभगत?

सूत्रों का कहना है कि योजनाएं जानबूझकर इस तरह बनाई जाती हैं कि उन्हें “लागू करने की जरूरत ही न पड़े” — यानी पेपरवर्क पूरा, फाइलें दुरुस्त, लेकिन काम नहीं। इस व्यवस्था से अधिकारी भी खुश, ठेकेदार भी और कहीं-कहीं तो स्थानीय नेता भी।

पहाड़ी क्षेत्रों में बजट भारी, काम हल्का

उत्तरकाशी, चमोली, रुद्रप्रयाग जैसे पहाड़ी जिलों के लिए करोड़ों के बजट सालाना जारी किए जाते हैं, लेकिन ज़मीन पर काम देखने जाएं तो वहां का हाल भी कमतर नहीं। कई योजनाएं तो ऐसी हैं जो सिर्फ बजट पास होने तक जिंदा रहती हैं—फिर न टेंडर होता है, न निर्माण शुरू होता है।

FAIZAN KHAN REPORTER

रिपोर्टर

FAIZAN KHAN REPORTER

रिपोर्टर

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