
राजधानी देहरादून के एक प्रमुख सरकारी अस्पताल में तैनात जनसंपर्क अधिकारी (पीआरओ) पर इन दिनों सवालों की बौछार हो रही है। जिस पद का दायित्व होता है जनता और अस्पताल प्रशासन के बीच सेतु बनने का, वही पीआरओ अब ‘सिर्फ नाम के’ पदाधिकारी बनकर रह गए हैं। खैर हम उनका नाम न लेते हुए इस खबर के माध्यम से उन्हें इस बात का एहसास दिलाते हैं कि वे इस पद को गंभीरता से ले नहीं तो पद छोड़ दे।
जनता बेहाल, पीआरओ नदारद
अस्पताल में आने वाले मरीजों और उनके परिजनों का आरोप है कि पीआरओ से संपर्क करना किसी ‘असंभव कार्य’ जैसा हो गया है। न वे जनता की समस्याएं सुनते हैं, न ही कोई समाधान देते हैं। कई बार तो लोग पीआरओ का नाम लेकर पूछते रह जाते हैं, लेकिन उनका अता-पता नहीं मिलता।
जनप्रतिनिधियों को भी नहीं मिल रहा सम्मान
स्थानीय जनप्रतिनिधियों का कहना है कि जब भी वे अस्पताल में किसी मुद्दे पर बात करने पहुंचते हैं, तो पीआरओ का व्यवहार असहयोगात्मक होता है। ऐसा लगता है मानो उन्हें जनसेवकों से संवाद की जिम्मेदारी सौंपी ही नहीं गई हो।
मीडिया से भी दूरी बनाए हुए हैं साहब!
जब मीडिया प्रतिनिधियों ने अस्पताल से जुड़े सवालों के जवाब जानने की कोशिश की, तो उन्हें भी टका-सा जवाब मिला या फिर पूरी तरह से अनदेखी कर दी गई। जिस व्यक्ति को पारदर्शिता और संवाद के लिए रखा गया है, वही पीआरओ मीडिया से भागता फिर रहा है।
प्रशासन मौन, सवाल गंभीर
सवाल उठता है कि जब अस्पताल के पीआरओ का काम ही संवाद स्थापित करना है, तो ऐसे ‘मौन व्रती’ अधिकारी को कुर्सी पर क्यों बैठाया गया है? प्रशासन को चाहिए कि इस पर तुरंत संज्ञान ले और या तो जवाबदेही तय करे या फिर ऐसे पद को समाप्त कर दे जो सिर्फ कागज़ों में ज़िंदा है।