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“नशे का धंधा जारी, पुलिस के दावे भारी!” “सिर्फ़ पोस्टर और प्रचार से नहीं मिटेगा नशा!”

“क़ानून की लाठी कमजोर, नशे का बाज़ार मज़बूत!”

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देश में नशे की बढ़ती लत एक गंभीर सामाजिक और स्वास्थ्य समस्या बन चुकी है। सरकार और पुलिस प्रशासन इसे रोकने के लिए लगातार बड़े-बड़े अभियान चलाने के दावे करते हैं। नशे के सौदागरों पर छापेमारी, अवैध पदार्थों की जब्ती, और जागरूकता अभियान इन प्रयासों का हिस्सा हैं। लेकिन इसके बावजूद, नशे की जड़ें और गहरी होती जा रही हैं। सवाल यह उठता है कि क्या ये प्रयास वाकई प्रभावी हैं या फिर सिर्फ़ दिखावे की कार्यवाही?

अभियान चलते हैं, लेकिन नशा रुकता नहीं

हर साल लाखों रुपये नशा मुक्ति अभियानों पर खर्च किए जाते हैं। स्कूलों, कॉलेजों और गाँवों में रैलियाँ निकाली जाती हैं, पोस्टर लगाए जाते हैं, और सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल किए जाते हैं। पुलिस समय-समय पर प्रेस कॉन्फ्रेंस कर के बड़ी कार्रवाई का एलान करती है — “इतनी मात्रा में ड्रग्स बरामद”, “इतने लोग गिरफ़्तार” — लेकिन सच्चाई यह है कि गली-कूचों में नशा अब भी खुलेआम बिकता है।

छोटे तस्कर पकड़े जाते हैं, मगर बड़ी मछलियाँ बच निकलती हैं

पुलिस कार्रवाई में अक्सर वही लोग फँसते हैं जो नशा सप्लाई चेन की निचली कड़ी हैं — गरीब, बेरोज़गार या मजबूरी में फँसे युवक। जबकि असली मास्टरमाइंड, जो इस नेटवर्क को चलाते हैं, या तो रसूख़दार होते हैं या फिर सिस्टम से जुड़े होते हैं। नतीजा: नशे का धंधा कभी बंद नहीं होता, बस चेहरे बदलते रहते हैं।

जनता का भरोसा डगमगाया

कई बार लोगों का यह भी मानना है कि पुलिस कुछ मामलों में आंखें मूंद लेती है या मिलीभगत में शामिल होती है। कुछ जगहों पर तो लोग खुलेआम कहते हैं कि नशा बेचना तब तक मुमकिन नहीं जब तक “ऊपर से संरक्षण” न हो। ऐसे में जब सरकार “ड्रग-फ़्री इंडिया” की बात करती है, तो लोगों को यह एक राजनीतिक नारा ही लगता है।

हल क्या है?

समस्या का समाधान सिर्फ़ सतही कार्यवाही से नहीं होगा। इसके लिए ज़रूरत है:

  • सख़्त और निष्पक्ष कानूनों की, जिनका हर स्तर पर पालन हो
  • पुलिस और प्रशासन की जवाबदेही बढ़ाने की
  • नशा करने वालों के लिए पुनर्वास और मानसिक सहायता कार्यक्रम
  • शिक्षा व्यवस्था में नशा विरोधी जागरूकता को मजबूत करने की

जब तक नशे के खिलाफ़ लड़ाई को सिर्फ़ “काग़ज़ी कार्रवाई” से आगे नहीं ले जाया जाएगा, तब तक हालात नहीं बदलेंगे। ज़रूरत है इच्छाशक्ति की — न सिर्फ़ सरकार और प्रशासन की, बल्कि समाज की भी। वरना यह लड़ाई सिर्फ़ बयानबाज़ी बन कर रह जाएगी, और अगली पीढ़ी इसका सबसे बड़ा शिकार होगी।

FAIZAN KHAN REPORTER

रिपोर्टर

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