
देहरादून
भारत के क्षेत्रीय परिवहन कार्यालयों (RTO) का काम जनता को सुविधाएं देना है — ड्राइविंग लाइसेंस बनवाना, वाहन का रजिस्ट्रेशन कराना, परमिट लेना, आदि। लेकिन सच्चाई इससे कोसों दूर है। कागजों पर पारदर्शिता और तकनीकी सुविधा का ढोल पीटा जा रहा है, वहीं ज़मीनी हकीकत ये है कि आम आदमी को घंटों लाइन में खड़ा होना पड़ता है, चक्कर पर चक्कर काटने पड़ते हैं — और तब भी काम अधूरा रह जाता है। और ये हाल सभी राज्यों के आरटीओ दफ्तर के है।
इसी आरटीओ में जब वही काम एक “दलाल” के जरिए कराया जाए, तो न लाइन लगती है, न फॉर्म भरने की झंझट होती है। हज़ार-दो हज़ार पाँच हजार रुपए लेकर दलाल मिनटों में काम करवा देता है। सवाल ये उठता है — जब काम ‘पैसे’ देकर आसानी से हो सकता है, तो फिर आम जनता को ‘प्रक्रिया’ के नाम पर क्यों परेशान किया जाता है?
कौन चला रहा है आरटीओ — सिस्टम या सिंडिकेट?
जांच से पता चलता है कि कई जगहों पर दलालों की जड़ें इतनी गहरी हैं कि वे खुद अधिकारियों के साथ गठजोड़ कर काम कर रहे हैं। वे कौन-सा फॉर्म भरवाना है, कौन-सा दस्तावेज़ चाहिए, कौन से अफसर को कितनी ‘चाय-पानी’ देनी है — सब जानते हैं। ऐसे में नियम सिर्फ आम जनता के लिए बन जाते हैं, और सिस्टम को चलाता है एक “अनाधिकारिक दलाल तंत्र”।
जनता की परेशानी — एक दिखावा?
सरकार डिजिटलीकरण और पारदर्शिता की बात करती है, लेकिन यदि वही नागरिक जब खुद फॉर्म भरता है, तो सिस्टम उसे बार-बार रिजेक्ट करता है, कोई मार्गदर्शन नहीं मिलता। जबकि दलाल के पास हर सवाल का जवाब है। क्या यह दर्शाता नहीं कि जनता को परेशान करना सिर्फ एक दिखावा है, ताकि अंततः वह मजबूर होकर दलाल का ही सहारा ले?
समाधान क्या है?
1. दलालों पर सख्त कार्रवाई: आरटीओ कार्यालयों के बाहर खुलेआम घूम रहे दलालों को हटाया जाए और निगरानी रखी जाए।
2. जनता के लिए गाइडेंस सेंटर: आम नागरिकों के लिए हेल्पडेस्क, जानकारी केंद्र और स्व-सहायता कियोस्क को प्रभावी बनाया जाए।
3. अधिकारी जवाबदेह हों: हर असफल आवेदन के पीछे संबंधित कर्मचारी की जवाबदेही तय हो।
4. ऑनलाइन प्रक्रिया को बाधा रहित बनाया जाए: तकनीकी खामियों को दूर कर प्रक्रिया को वास्तव में जनता के अनुकूल बनाया जाए।
जब तक ‘सिस्टम’ को दलालों से मुक्त नहीं किया जाएगा, तब तक आम नागरिक केवल प्रक्रियाओं के जाल में उलझा रहेगा और भ्रष्ट तंत्र फलता-फूलता रहेगा। सवाल यह नहीं कि दलाल काम करा देते हैं, सवाल यह है कि आम आदमी का काम क्यों नहीं हो पाता बिना दलाल के?