
देहरादून
कुछ विभागों में हालात ऐसे बन गए हैं कि अब अफसर ही ठेकेदार बन बैठे हैं। नीयम-कायदों को ताक पर रखकर ये अधिकारी खुद ही ठेके उठाते हैं और बाकी ठेकेदारों के हिस्से का काम खुद ही हड़प जाते हैं। सवाल ये है कि जब सिस्टम में बैठा जिम्मेदार ही खेल कर रहा हो, तो आम ठेकेदार की क्या बिसात?
सूत्रों के मुताबिक, कुछ विभागों में अधिकारी पर्दे के पीछे से कंपनियां चलवा रहे हैं, फर्जी नामों पर टेंडर भरवाते हैं और फिर अपने रसूख के दम पर उन्हें पास भी करवा लेते हैं। काम का बंटवारा भी अपने हिसाब से करते हैं – जहां मुनाफा ज्यादा दिखा, वहां खुद उतर जाते हैं, और बचा-खुचा काम दूसरों को थमा देते हैं।
ठेकेदारों में गुस्सा, लेकिन बोल नहीं सकते
जिन असली ठेकेदारों ने सालों मेहनत से अपने काम को खड़ा किया है, उन्हें अब इन अफसर-ठेकेदारों की वजह से काम नहीं मिल पा रहा। कई ठेकेदारों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि वे इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठायेंगे और उच्च अधिकारियों से शिकायत करेंगे।
सरकार ने स्पष्ट नियम बनाए हैं कि कोई भी सरकारी अधिकारी निजी व्यवसाय में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल नहीं हो सकता। बावजूद इसके, कुछ विभागों में ये खेल खुलेआम चल रहा है। विभागीय जांचें भी या तो शुरू नहीं होतीं, या फिर फाइलों में ही दफन हो जाती हैं।
अब सवाल ये है:
• जब अधिकारी खुद नियम तोड़कर ठेका ले रहे हैं, तो पारदर्शिता की उम्मीद किससे की जाए?
• असली ठेकेदारों के लिए क्या कोई सुरक्षित मंच है जहां वे अपने साथ हो रहे अन्याय की शिकायत कर सकें?
• और सबसे अहम – क्या कोई कार्रवाई होगी या फिर ये “अंदरूनी सेटिंग” यूं ही चलती रहेगी?
जनता का पैसा है, उसका सही इस्तेमाल होना चाहिए। अगर अधिकारी ही खेल में उतर जाएं, तो फिर ‘खेल’ नहीं, सीधा ‘घोटाला’ बन जाता है। अब देखना ये है कि संबंधित विभाग और शासन इस पर क्या रुख अपनाते हैं। सूत्रों से ऐसे कई अधिकारियों के नाम हमारे पास हैं जो समय आने पर सभी के सामने उजागर होंगे।
सूत्रों के अनुसार, कुछ विभागों में अधिकारी सीधे तौर पर अपने रिश्तेदारों या करीबियों के नाम से फर्में पंजीकृत करवाकर टेंडर में हिस्सा ले रहे हैं। लेकिन असल में उस काम को संचालित वही अधिकारी करते हैं, जो उस परियोजना की निगरानी भी कर रहे होते हैं। यानी “खुद ही ठेका दो, खुद ही निरीक्षण करो, खुद ही भुगतान पास करो।