
राज्य सरकार पीडब्ल्यूडी और सिंचाई जैसे बड़े विभागों पर हर साल करोड़ों का बजट खर्च करती है। योजनाएँ भी खूब बनती हैं, टेंडर भी समय पर निकलते हैं, और कार्य भी जमीन पर दिखाई देते हैं—लेकिन जब बात आती है ठेकेदारों के बिलों के भुगतान की, तो सरकारी ऑफिसों की फाइलें कछुए की रफ्तार पकड़ लेती हैं।
सबसे बड़ा सवाल यही कि जब बजट की कमी नहीं है, तो फिर भुगतान रोकने की मजबूरी क्या है?
सूत्र बताते हैं कि कई मामलों में बिल जानबूझकर लटकाए जाते हैं। कभी “फाइल देखी नहीं”, कभी “साहब मीटिंग में हैं”, तो कभी “अभी अकाउंट सेक्शन ने नहीं चेक किया”… बहानों की लिस्ट लंबी है और सालों से एक जैसी।
ठेकेदारों का कहना है कि विभागों में बैठे कुछ अधिकारी बिल पास करने में अनावश्यक देरी, औपचारिकताओं के नाम पर चक्कर और ‘मूड’ सिस्टम चलाते हैं। जबकि सरकार की मंशा साफ है—काम हुआ तो भुगतान समय पर दो। मगर नीचे के स्तर पर इस मंशा को लागू करने की न तो इच्छाशक्ति दिखती है, न ही जिम्मेदारी का एहसास।
जानकार इसे लापरवाही से ज्यादा, एक “अघोषित ढर्रा” बताते हैं, जिसमें फाइलें सिर्फ इसलिए रोक दी जाती हैं ताकि दबाव बने और अधिकारी अपनी सुविधा से काम करें।



