
देहरादून
उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में ट्रैफिक पुलिस और उसके ठेकेदारों की मनमानी के चलते आम जनता के सम्मान और सुविधा का चीरहरण हो रहा है। हाल ही में 69 वर्षीय वरिष्ठ नागरिक और पत्रकार एल.एम. शर्मा के साथ घटी घटना ने पुलिस और ठेकेदारी व्यवस्था के भ्रष्टाचार को उजागर कर दिया है। यह मामला एक ‘समानांतर यातायात व्यवस्था’ की ओर इशारा करता है, जहां जनता को दंडित करने के नाम पर लूट का खेल खेला जा रहा है।
कैसे हुआ ‘गुंडा राज’ का खुलासा?
एल.एम. शर्मा, जो कि एक वरिष्ठ पत्रकार और भारतीय जनता पार्टी के किसान मोर्चा के सदस्य हैं, अपनी इको स्पोर्ट्स कार लेकर यमुना कॉलोनी रोड पर दवाई खरीदने पहुंचे थे। सड़क के दोनों ओर गाड़ियां पार्क थीं, और उनका काम केवल कुछ मिनटों का था। लेकिन जैसे ही वह बाहर आए, उनकी गाड़ी को एक क्रेन द्वारा उठाया जा चुका था।
बुजुर्ग ने क्रेन चालक से विनती की, लेकिन उन्हें अनसुना कर दिया गया। गाड़ी को गढ़ी कैंट थाने ले जाया गया, और चार घंटे तक शर्मा जी को अधिकारियों से गुहार लगानी पड़ी। एसपी ट्रैफिक और डिप्टी एसपी के फोन न उठाने से उनकी परेशानी और बढ़ गई। अंततः उन्हें ₹1,100 अदा करने के बाद ही अपनी गाड़ी छुड़वानी पड़ी।
ठेकेदारी के नाम पर अवैध वसूली
ट्रैफिक पुलिस के ठेकेदार ने ₹600 वसूले, जो सरकारी खाते में जमा नहीं हुए।
इसके अतिरिक्त, ₹500 का चालान काटा गया।
पूरे मामले में न तो ठेकेदार वर्दी में था, और न ही पुलिस कर्मियों के पास पहचान की कोई स्पष्टता थी।
यह स्पष्ट है कि ठेकेदार को यह अधिकार ट्रैफिक पुलिस ने दिया है, लेकिन क्या यह वैध है? क्या किसी निजी ठेकेदार को गाड़ी टोहने और जनता से सीधे वसूली करने का अधिकार दिया जा सकता है?
बुजुर्ग का दर्द:
“मैंने दवाई खरीदने के लिए गाड़ी रोकी थी। मेरी गाड़ी पर प्रेस और पार्टी का चिन्ह होने के बावजूद इसे उठाया गया। चार घंटे तक थाने में बैठा रहा, लेकिन मेरी कोई सुनवाई नहीं हुई। गाड़ी छुड़ाने के लिए ₹1,100 देने पड़े। अब यह सोचने पर मजबूर हूं कि क्या उत्तराखंड की पुलिस जनता के लिए है या ठेकेदारों की जेब भरने के लिए।”
भ्रष्टाचार का खेल: किसके हिस्से में गया ₹600?
यह रकम ठेकेदार ने वसूली, लेकिन इसे सरकारी खाते में जमा नहीं किया गया।
क्या यह पैसा ठेकेदार और अधिकारियों के बीच बंटा?
यह सवाल उठता है कि इस व्यवस्था के तहत ठेकेदार और पुलिस की मिलीभगत से वसूली का खेल चल रहा है।
कानूनी सवाल:
1. क्या ट्रैफिक पुलिस को ठेकेदार को गाड़ी उठाने और वसूली का अधिकार देने का प्रावधान है?
2. क्या यह ₹600 सरकारी खाते में जमा होता है या यह भ्रष्टाचार की ओर इशारा करता है?
3. क्या ठेकेदार का हस्तक्षेप यातायात नियमों का उल्लंघन नहीं है?
‘वसूली तंत्र’ की सच्चाई: जनता की जेब पर डाका
ठेकेदारों की नियुक्ति के पीछे क्या प्रक्रिया है?
क्या गाड़ियों को उठाने और चालान वसूली का यह मॉडल वैधानिक है?
क्या यह व्यवस्था ट्रैफिक पुलिस की संसाधन समस्या को हल करने का तरीका है या जनता को लूटने का नया बहाना?
सवाल जो सरकार को जवाब देने चाहिए:
क्या पुलिस प्रशासन ठेकेदारी व्यवस्था का दुरुपयोग रोक पाएगा?
क्या ठेकेदारों को वसूली के लिए दी गई शक्ति पर नियंत्रण लगाया जाएगा?
क्या भ्रष्टाचार के इस खेल में लिप्त अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होगी?
अतः देहरादून में ट्रैफिक पुलिस की ठेकेदारी व्यवस्था ने कानून व्यवस्था और जनता के विश्वास को कमजोर किया है। यह मामला केवल एक बुजुर्ग के साथ हुए अन्याय का नहीं है, बल्कि एक पूरे तंत्र की पोल खोलता है, जो जनता को लूटने और सरकार की छवि खराब करने का काम कर रहा है।
क्या उत्तराखंड सरकार इस ‘समानांतर यातायात व्यवस्था’ पर लगाम लगाएगी, या जनता इसी तरह शोषित होती रहेगी?