
देहरादून
बरसात आई नहीं कि किसी का मकान ढह गया, कहीं सड़क धंस गई, तो कहीं पुल का पुश्ता बह गया। हर साल की तरह इस बार भी बारिश आई और सरकारी व्यवस्था की पोल खोल गई। सवाल उठता है – क्या ये महज प्राकृतिक आपदा है, या हमारी लचर व्यवस्था की देन?
दरअसल, सबसे बड़ा नुकसान वहां होता है, जहां निर्माण कार्य अधूरे छोड़ दिए गए। जहां मरम्मत के लिए फंड की मंजूरी महीनों से अटकी हुई है। विभागीय लापरवाही, टेंडर प्रक्रिया में देरी, और बजट न मिलने की दुहाई देकर जिम्मेदार अधिकारी बरी हो जाते हैं, लेकिन जब जी किसी की जान जाती है तो उसका हर्जाना कौन देगा?
क्या किसी अफसर पर कार्रवाई होती है जब कोई बच्चा गड्ढे में गिरकर जान गंवा देता है? क्या विभाग प्रमुखों से पूछा जाता है जब पुल की दीवार ढहने से पूरा परिवार बाढ़ में बह जाता है? नहीं!
जब सवाल जवाबदेही का आता है तो सबकी जुबान पर एक ही बात होती है – “बजट नहीं आया था” या “फाइल ऊपर अटकी हुई है”। लेकिन जनता की जान ऊपर वाले के भरोसे छोड़ दी जाती है।
हर साल करोड़ों का बजट स्वीकृत होता है, लेकिन उसका सही समय पर उपयोग न होना खुद एक आपदा है। इसका असर न सिर्फ बुनियादी ढांचे पर पड़ता है बल्कि आम आदमी की जिंदगी पर सीधा हमला होता है।
तो अब सवाल ये है:
- क्या जान की कोई कीमत नहीं?
- क्या सिस्टम को तब ही जागना है जब जान चली जाए?
- क्या हर्जाना भी अब बारिश के बाद मिलेगा – वह भी कागजों में?
सरकार और संबंधित विभागों को अब जवाब देना होगा – नहीं तो अगली बरसात सिर्फ पानी नहीं लाएगी, बल्कि जनता का गुस्सा भी बहाकर ले जाएगी।