
देहरादून
कभी रिश्ते दिलों की धड़कन हुआ करते थे, आज वही रिश्ते दिल की धड़कन रोकने का सबब बनते जा रहे हैं।
हर सुबह कोई अख़बार खोलिए, कोई न्यूज़ पोर्टल देख लीजिए — और यक़ीन मानिए, आपके सामने एक ऐसी ख़बर ज़रूर आएगी जो इंसानियत के नाम पर धब्बा होगी।
कहीं बीवी ने प्रेमी संग मिलकर शौहर का क़त्ल कर दिया, तो कहीं मर्द ने शक के बग़ैर अपनी बीवी को मौत के घाट उतार दिया।
कभी लाश फ्रिज़ से निकलती है, कभी नीले ड्रम से, कभी चाकुओं से काटी जाती है और कभी तेज़ाब से जलाकर पहचान मिटा दी जाती है।
क्या यही है आज का रिश्ता? क्या यही है आज की मोहब्बत?
ना सिर्फ़ औरतें, ना सिर्फ़ मर्द — दोनों ज़िम्मेदार हैं
समाज ने एक आदत पाल ली है — हर जुर्म को जेंडर से जोड़ देने की।
जब बीवी मारे तो “औरतों का ज़माना है”, जब शौहर मारे तो “मर्दों की बर्बरता”।
मगर कड़वा सच ये है कि आज रिश्ता एक जहरीला खेल बन गया है — जिसमें हार चाहे मर्द की हो या औरत की, जीत सिर्फ़ मौत की होती है।

बीवियाँ अब सिर्फ़ ज़हर नहीं मिलातीं, वो अब योजनाएं बनाती हैं, टुकड़े करती हैं, सबूत मिटाती हैं।
और मर्द अब सिर्फ़ ग़ुस्से में नहीं मारते, अब वो भी प्लान करते हैं, साज़िशें रचते हैं, और बड़ी बेशर्मी से कहते हैं:
“पकड़ा जाऊँगा तो क्या? कम से कम मेरी बेइज़्ज़ती तो नहीं होगी!”
शर्मनाक बात ये नहीं कि लोग हत्या कर रहे हैं — शर्मनाक ये है कि उन्हें लगता है कि ये ठीक है।
शादी: एक समझौता या सज़ा?
कभी शादी दो आत्माओं का मिलन कहलाती थी। आज?
एक नाख़ुश लड़की के लिए ज़बरदस्ती निभाई जाने वाली रस्म।
एक परेशान मर्द के लिए रोज़-रोज़ की तल्ख़ियों की अदालत।
कहीं दहेज है, कहीं शक है, कहीं इमोशनल ब्लैकमेल, कहीं एक्स्ट्रा अफेयर।
मगर सवाल ये नहीं कि ये सब क्यों है।
सवाल ये है कि इसका हल ‘मौत’ क्यों है?
क्या हमारे पास अब कोई और रास्ता नहीं बचा?
क्या रिश्तों में इतनी नफ़रत भर चुकी है कि हम ‘तलाक़’ जैसे हक़ को ‘बदनामी’ और ‘हत्या’ को ‘इज़्ज़त’ मानने लगे हैं?
बात करना मुश्किल है, मगर मार देना आसान?
क्या इतना मुश्किल हो गया है अब किसी को कहना:
“मैं अब तुम्हारे साथ नहीं रह सकता/सकती”?
क्या किसी की ज़िंदगी बर्बाद कर देना, किसी की सांसें छीन लेना अब आसान लगने लगा है?
हमें अपने दिल से ये सवाल पूछना होगा —
क्यों नहीं कह सकते कि “अब नहीं निभ सकता”?
क्यों हमें लगता है कि मार देना ज़्यादा हल है?
क्या ये हमारी परवरिश की कमी है?
या हमारे समाज में ‘रिश्ता निभाने’ का दबाव इतना ज़्यादा है कि लोग “निभा नहीं सकता” कहने से पहले “मार डालूंगा/डाल दूंगी” कह देते हैं?
मीडिया की भूमिका: सनसनी या चेतावनी?
हर न्यूज़ चैनल इस तरह की ख़बरें चलाता है:
“प्यासी थी मोहब्बत… लहू पी गई वफ़ा…”
“ड्रम में लाश… फ्रिज़ में सबूत…”
“पत्नी की साज़िश… प्रेमी की प्लानिंग…”
मगर कोई ये नहीं पूछता कि ये सब रोकने के लिए समाज क्या कर रहा है?
क्या मीडिया सिर्फ़ मौत का तमाशा दिखाएगा, या कोई रास्ता भी सुझाएगा?
हमें भी समझना होगा — सनसनी से हल नहीं निकलता, समझदारी से निकलता है।
रिश्ते निभाओ, मगर अगर ना निभें — तो छोड़ दो, मारो मत।
इसका हल क़त्ल नहीं, क़ानून है।
इसका हल तलाक़ है, बातचीत है, दूरी है — मगर मौत नहीं।
रिश्ता जब जहर बन जाए, तो उस जहर को पीने से बेहतर है अलग हो जाना।
तलाक़ कोई हार नहीं है — यह एक इंसानी रास्ता है, जो हर इंसान का हक़ है।
मगर हत्या? वो एक गुनाह है — इंसानियत के ख़िलाफ़, धर्म के ख़िलाफ़, समाज के ख़िलाफ़।
अब वक़्त है — रुक कर सोचने का
कहाँ जा रहा है हमारा समाज?
हमारे बच्चे क्या सीख रहे हैं?
क्या हम यही बताना चाहते हैं कि रिश्ते तब तक निभाओ जब तक दम है, और जब दम टूटे — तो सामने वाले का दम निकाल दो?
नहीं… हरगिज़ नहीं।
हमें यह ज़िम्मेदारी लेनी होगी कि रिश्तों में नफ़रत नहीं, सहमति हो।
और जुदाई अगर हो, तो इंसानियत से हो, ज़हर से नहीं।
अंतिम बात
मोहब्बत अगर ज़िंदगी नहीं दे सकती, तो कम से कम मौत ना दे।
शादी अगर निभ नहीं सकती, तो कम से कम क़त्ल का बहाना ना बने।
और रिश्ता अगर टूट भी जाए, तो लाशें पीछे ना छोड़े।
वरना, आने वाली पीढ़ियाँ हमें “इंसान” नहीं, “हत्यारे” याद करेंगी —
जिन्होंने मोहब्बत को मौत में बदल दिया था।
मोहब्बत अगर ज़िंदगी नहीं दे सकती, तो कम से कम मौत भी ना दे।
रिश्ते निभाइए — लेकिन जान लेकर नहीं।
अगर निभ न सके — तो छोड़ दीजिए। यही इंसानियत है।